बहुत देर तक पर्वत से बाते की है
उसके आहो को समझा है
तन कर खड़ा जो है
स्थिरता का जो पर्याय है
क्या नहीं सहता है
कितने बदलाव हवा के
आते जाते मोसम के
गवाह जो है
कितने बनते टूटते अरमानो का
खुदका अरमान कोई नहीं
रोज जो देखता है
सबके अरमानो का हस्र
सबकुछ छोड़ दिया है
दीवानों पर
बसाने को महफिल
भुलाने को महफ़िल
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